गुरुवार, जुलाई 05, 2007

मंथन

बंधुवर एक प्रशन है। जब पूरे भारतवर्ष में मात्र एक ही चैनल था, जब हम समाजवाद के "स्वर्न युग" में थे, तब हमारे धारावाहिक बेहतर थे. परंतु अब जब कि पता नहीं कि कब हमारा भारत वर्ष सोने कि चिड़िया घोषित हो जाये, तब ऐसे ऐसे बेहूदे और निम्न श्रेणी के कार्यक्रम आतें हैं, कि हमारी देखने कि कतई इच्छा नहीं होती। समस्या ये है कि स्वन्त्रता से ही कला अवाम संस्कृति नहीं आ जाती है उसके लिए आवश्यक है, सृजनता की भावना की। स्वन्त्रता सृजन क्रिया में सहायक है, लेकिन भाव तो आत्मा का प्रकाश है और कला उस भाव का मूर्त स्वरुप। बाज़ार मानव समाज का एक दास है , नैतिकता उसका अंकुश और सृजन उसकी ऊर्जा। जब तक भारत का अंतःकरण संदेह के पाश में बंधा हैं, और जब तक भारत अपनी आत्मा को नहीं खोजता, तब तक यहाँ कला का प्रकाश कठिन है।

चलचित्र के विषय में

भाईसाहेब, ये काहे को बुद्धू जीवी यथार्थवाद को ले कर ठण्डी ठण्डी आहें भरते रहते हैं।
मेरा कहना है कि यदि आपको वास्तविकता में इतना आनंद आता है, तो हमारे घर तशरीफ़ रखिये।
हम ख़ूब जीं भर के वास्तविकता का लुत्फ़ करवा देंगें, वो भी सस्ते में, और साथ में शिकंजी भी पिला देंगें ।
यह मल्टीप्लेक्स जाकर, वाहियात मक्के के दाने खा कर, लघुशंका की इच्छा को मन में मार के, कौन सी रीयेलेटी?
हमारा बस चलें तो एक बहुत बड़ा सा सूचना पट लगवा दें कि देवियों एवं सज्जनों, कृपया अपनी सच्चाई घरों में रख के आवें, यहाँ पे हम सिर्फ कल्पना और भावना कि उड़ान भरेंगे, धन्यवाद।

अर्ज़ किया है

कमरे के बाहर बारिश हो रही है
और कमरे के भीतर मेरी तीन चद्दीयाँ चार दिनों से तार पर गीली पढी है.

हम छायावाद नहीं यथार्थवाद में विश्वास करतें हैं